एक सड़क जिसे लेकर हुआ है नेपाल और भारत के बीच विवाद, क्या है पूरी कहानी, पढ़ें ये रिपोर्ट
भारत-नेपाल के बीच एक बार फिर से सीमाओं को लेकर विवाद हो गया है। इस बार विवाद का कारण है- सड़क। ये सड़क उत्तराखंड-नेपाल सीमा के पास घटियाबगढ़ से लिपुलेख दर्रा के बीच बन रही है। इसकी लंबाई 80 किमी है।
नेपाल तीन दिशाओं से भारत से घिरा है। पूरब, पश्चिम और दक्षिण। भारत-नेपाल के बीच 1 हजार 808 किमी लंबी सीमा है। उसके बाद भी विवाद क्यों? तो उसका कारण है लिपुलेख को नेपाल अपना हिस्सा बता रहा है और इस सड़क निर्माण पर आपत्ति जता रहा है।
हम भारत-नेपाल सीमा विवाद को आगे समझेंगे। पर उससे पहले समझते हैं ये सड़क क्यों बनाई जा रही है?
दरअसल, हर साल लाखों श्रद्धालु कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए जाते हैं। ये कैलाश मानसरोवर है तिब्बत में। वही तिब्बत, जिस पर चीन अपना अधिकार बताता है।
कैलाश मानसरोवर जाने के हमारे पास तीन रास्ते हैं। पहला रास्ता है सिक्किम का नाथूला दर्रा। दूसरा रास्ता है नेपाल। और तीसरा रास्ता है उत्तराखंड।
सिक्किम के नाथूला दर्रे से कैलाश मानसरोवर के बीच करीब 900 किमी का अंतर है। जबकि, नेपाल के जरिए मानसरोवर यात्रा काठमांडू से शुरू होती है और यहां से मानसरोवर तक की दूरी 540 किमी से ज्यादा है।
जबकि, उत्तराखंड के लिपुलेख से मानसरोवर की यात्रा सिर्फ 90 किमी है। नेपाल और सिक्किम के रास्ते मानसरोवर आने-जाने में 20 दिन से ज्यादा लगता है। और लिपुलेख में सड़क बनने से अब ये यात्रा सिर्फ तीन दिन में ही हो सकेगी।
इसलिए, सिक्किम और नेपाल की तुलना में उत्तराखंड वाला रास्ता सबसे छोटा है। इसका दूसरा फायदा ये भी है कि बाकी दोनों रास्तों के मुकाबले इसका ज्यादातर हिस्सा भारत में ही आता है।
अब ये भी समझिए कि उत्तराखंड वाले रास्ते के भी तीन हिस्से हैं। पहला हिस्सा- पिथौरागढ़ से तवाघाट। इसकी लंबाई करीब 107 किमी है। दूसरा हिस्सा है- तवाघाट से घटियाबगढ़। जो साढ़े 19 किमी लंबा है। और तीसरा हिस्सा है- घटियाबढ़ से लिपुलेख दर्रा। जिसकी लंबाई 80 किमी है।
पिथौरागढ़ से तवाघाट तक तो सड़क है। लेकिन तवाघाट से घटियाबगढ़ के बीच सिंगल लेन ही है। इसलिए बॉर्डर रोड ऑर्गनाइजेशन इसे डबल लेन कर रही है। और जो तीसरा हिस्सा है घटियाबगढ़ से लिपुलेख दर्रा। इस हिस्से की 80 में से 76 किमी की सड़क बन भी चुकी है और इस साल के आखिर तक बाकी बची सड़क भी बन जाएगी। ये सड़क बनाने में इतना समय इसलिए, क्योंकि पूरा इलाका पहाड़ी है।
इस सड़क का उद्घाटन 8 मई को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए किया था। उसके बाद ही नेपाल ने इस सड़क निर्माण पर आपत्ति जताई।
नेपाल को क्यों है आपत्ति?
लिपुलेख दर्रा भारतीय सीमा के एकदम आखिर में है। ये वहां बना है जहां भारत, नेपाल और चीन (तिब्बत) की सीमा आकर मिलती है।
8 मई को जब राजनाथ सिंह ने सड़क का उद्घाटन किया, तो उसके अगले दिन यानी 9 मई को नेपाल के विदेश मंत्रालय ने प्रेस रिलीज जारी कर इस पर आपत्ति जताई।
दावा किया कि लिपुलेख नेपाल के हिस्से में पड़ता है। लिहाजा, सड़क निर्माण गलत है। इसमें नेपाल ने मार्च 1816 में हुई सुगौली संधि का भी जिक्र किया।
नेपाल के विदेश मंत्रालय ने लिखा कि महाकाली नदी के पूरब में पड़ने वाला सारा हिस्सा नेपाल का है। इसमें न सिर्फ लिपुलेख बल्कि कालापानी और लिम्पियाधुरा भी शामिल है।
सुगौली संधि में भी यही जिक्र था कि महाकाली नदी के पश्चिमी इलाके में पड़ने वाले क्षेत्र पर नेपाल का अधिकार नहीं होगा। यानी, महाकाली नदी के पश्चिम का हिस्सा भारत के अधिकार में रहा।
लेकिन, इस विवाद की वजह है- महाकाली नदी। जिसे भारत में शारदा नदी भी कहते हैं।
दरअसल, महाकाली नदी जो है, वो कई अलग-अलग धाराओं से मिलकर बनी है। ऐसे में इसके उद्गम स्थल को लेकर अलग-अलग मत हैं।
नेपाल का दावा है महाकाली नदी की मुख्य धारा लिम्पियाधुरा से शुरू होती है। इसलिए इसे ही उद्गम स्थल माना जाएगा। क्योंकि उद्गम स्थल लिम्पियाधुरा है, इसलिए लिम्पियाधुरा, लिपुलेख और कालापानी नेपाल का हिस्सा हुआ।
जबकि, भारत कहता है कि महाकाली नदी की सभी धाराएं कालापानी गांव में आकर मिलती है, इसलिए इसे ही नदी का उद्गम स्थल माना जाए। भारत ये भी कहता है कि सुगौली संधि में मुख्य धारा को नदी माना गया था। ऐसे में लिपुलेख को नेपाल का हिस्सा मानना गलत है।
अब बात सुगौली संधि की
इसके लिए इतिहास में जाना होगा। 1765 में नेपाल में पृथ्वीनारायण शाह ने गोरखा साम्राज्य की स्थापना की। उन्हीं के नेतृत्व में गोरखों ने नेपाल के छोटे-छोटे राजे-रजवाड़ों और रियासतों को जीतकर मिला लिया।
उसके बाद 1790 में गोरखों ने तिब्बत पर आक्रमण कर दिया। चीन ने तिब्बत का साथ दिया और 1792 में गोरखों को संधि करने पर मजबूर कर दिया।
वहां से खदेड़ मिलने के बाद गोरखों ने भारत की ओर रुख किया। और 25 साल में ही गोरखों ने भारत से सटे राज्य, सिक्किम, गढ़वाल और कुमाऊं पर अपना नियंत्रण कर लिया।
उस समय भारत में अंग्रेजों का राज था। लिहाजा, ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के बीच लड़ाई शुरू हो गई। ये लड़ाई 1814 से 1816 तक चली। इस लड़ाई में नेपाल को अपना दो-तिहाई हिस्सा खोना पड़ा। हालांकि, ये वही हिस्सा था जो नेपाल ने भारत से छीना था।
लड़ाई के बीच ही 2 दिसंबर 1815 को ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के बीच सुगौली संधि हुई। सुगौली एक शहर है जो बिहार के चंपारण में है। ये संधि यहीं पर हुई थी।
कंपनी की तरफ से इस संधि पर लेफ्टिनेंट कर्नल पेरिस ब्रेडश और नेपाल की ओर से राजगुरु गजराज मिश्र ने हस्ताक्षर किए। इस संधि पर हस्ताक्षर तो दिसंबर 1815 में हो गए थे, लेकिन ये संधि अमल में 4 मार्च 1816 से आई।
इस संधि के तहत नेपाल को सिक्किम, गढ़वाल और कुमाऊं से अपना नियंत्रण छोड़ना पड़ा। अंग्रेजों से लड़ाई से पहले तक नेपाल ने पश्चिम में सतलज नदी और पूरब में तीस्ता नदी तक खुद को फैला लिया था। लेकिन, बाद में ये पश्चिम में महाकाली और पूरब में मैची नदी तक सीमित हो गया।
विवाद कैसे हुआ?
सुगौली संधि में ये तो तय हो गया कि नेपाल की सरहद पश्चिम में महाकाली और पूरब में मैची नदी तक होगी। लेकिन, इसमें नेपाल की सीमा तय नहीं हुई थी।
इसका नतीजा ये है कि आज भी भारत-नेपाल सीमा पर 54 ऐसी जगहें हैं जहां दोनों देशों को लेकर विवाद होता रहता है। इनमें कालापानी-लिम्प्याधुरा, सुस्ता, मैची क्षेत्र, टनकपुर, संदकपुर, पशुपतिनगर हिले थोरी जैसे प्रमुख स्थान है।
ऐसा अनुमान है कि विवादित स्थानों का क्षेत्रफल करीब 60 हजार हेक्टेयर होगा।
सुगौली संधि में सीमाएं तय नहीं होने से ही विवाद होता है। भारत का इस पर अलग मत है और नेपाल का अलग।
हालांकि, एक बात ये भी है कि भारत सालों से लिपुलेख को अपने मानचित्र में दिखाता आ रहा है।
ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के बीच जो सुगौली संधि हुई थी, उसमें था कि महाकाली नदी के पश्चिम हिस्से पर नेपाल का अधिकार नहीं है। सड़क का निर्माण भी इसी पश्चिम हिस्से में हो रहा है। नेपाल के हिस्से में महाकाली नदी का पूर्वी हिस्सा आता है।
लेकिन, नेपाल सरकार का कहना है कि सुगौली संधि में जिस महाकाली नदी का उल्लेख है, उसमें उसका पश्चिमी हिस्सा भी शामिल है, जिस पर भारत ने अपना अधिकार जमा रखा है।
भारत-नेपाल के बीच सीमा को लेकर सालों से विवाद
भारत और नेपाल के सीमाओं को लेकर सालों से विवाद चला आ रहा है। आजादी के बाद 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद भी नेपाल ने लिपुलेख पर दावा ठोंका था।
1981 में दोनों देशों की सीमाएं तय करने के लिए एक संयुक्त दल बना था, जिसने 98% सीमा तय भी कर ली थी। सन् 2000 में नेपाल के प्रधानमंत्री गिरिजाप्रसाद कोइराला ने भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से इस विवाद को बातचीत से सुलझाने का आग्रह भी किया था।
2015 में जब भारत ने चीन के साथ लिपुलेख रास्ते से व्यापार मार्ग का समझौता किया था, तब भी नेपाल ने इस पर आपत्ति जताते हुए कहा था कि इस समझौते को करने से पहले भारत और चीन को उससे भी पूछना चाहिए था।
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