नेपाल के गांववाले राशन भारत से ले जाते हैं और भारत के कई गांव फोन पर नेपाल के नेटवर्क का इस्तेमाल करते हैं
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में भारत-नेपाल सीमा पर बसा है धारचूला। यहां से एसडीएम कार्यालय के बाहर आज काफी चहल-पहल है। प्रदेश में लॉकडाउन की पाबंदियां तो लगभग खत्म हो चुकी हैं लेकिन इस सीमांत क्षेत्र में भारत-नेपाल सीमा विवाद के चलते कुछ नई तरह की पाबंदियां पैदा हो गई हैं।
एसडीएम कार्यालय पहुंचे लोग इन्हीं पाबंदियों से परेशान होकर यहां फरियाद लेकर आए हैं। ग्वालगाढ के रहने वाले रोहित सिंह भी ऐसे ही एक फरियादी हैं। कुछ ही दिनों पहले रोहित के भाई की एक कार दुर्घटना में मौत हो गई थी।
वे बताते हैं, ‘हमारे यहां परंपरा है कि मृत आत्मा की शांति के लिए उसकी अस्थियां कालापानी में विसर्जित की जाती हैं, जहां से काली नदी का उद्गम होता है। मुझे भाई की अस्थि विसर्जन के लिए कालापानी जाना है और उसी की अनुमति के लिए मैं यहां आया हूं लेकिन अनुमति नहीं मिल रही।’
कालापानी वह जगह है जो इन दिनों भारत-नेपाल सीमा विवाद का केंद्र बनी हुई है। नेपाल का दावा है कि कालापानी भारत का नहीं बल्कि नेपाल का हिस्सा है। इसके साथ ही भारत के लिपुलेख और लिंपियाधुरा को भी नेपाल ने अपने देश का हिस्सा बताया है। पिछले रविवार यहां के लोगों ने रेडियो पर ही ये खबर सुनी थी कि ‘नेपाल सरकार ने अपने देश के नक्शे में बदलाव से संबंधित संविधान संशोधन विधेयक संसद में पेश कर दिया है।
बीती 8 मई को देश के रक्षा मंत्री ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए यहां बनी एक सड़क का उद्घाटन किया था। यह सड़क धारचूला को लिपुलेख से जोड़ती है जो कि कैलाश मानसरोवर जाने वाले यात्रियों का अहम पड़ाव है। इस सड़क के बनने से कैलाश मानसरोवर की यात्रा एक हफ्ते में ही पूरी की जा सकती है जबकि पहले यह यात्रा तीन हफ्तों में होती थी।
लिपुलेख दर्रा भारत, तिब्बत और नेपाल की सीमाओं पर बसा है। भारत के लिए इस सड़क का निर्माण बेहद महत्वपूर्ण है लेकिन नेपाल ने इस सड़क निर्माण पर आपत्ति जताई है और इसके बाद ही कालापानी को अपने देश का हिस्सा बताने वाला संविधान संशोधन बिल संसद में पेश किया है।
इस सीमा विवाद के चलते पिथौरागढ़ जिले के तमाम लोगों के लिए कालापानी फिलहाल ‘कालापानी जैसा दूर' हो गया है। भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों के अलावा किसी को भी इन दिनों कालापानी जाने की इजाजत नहीं है। नई बनी सड़क ने कालापानी को सीधे धारचूला से जोड़ तो दिया है लेकिन इस सड़क पर आवागमन फिलहाल बेहद थमा-थमा है।
आम दिनों में स्थानीय लोगों के कालापानी जाने में कोई रोक-टोक नहीं होती थी। बाहर से आए लोगों को जरूर यहां पहुंचने के लिए इनर लाइन परमिट लेना होता था जो धारचूला के एसडीएम जारी करते थे।
धारचूला के एसडीएम अनिल शुक्ला कहते हैं, ‘ऊपर से ही आदेश हैं कि किसी को भी परमिट जारी नहीं किए जाएं। लॉकडाउन के पूरी तरह खुलने के बाद भी इस साल परमिट जारी नहीं होंगे।’ ऐसा क्यों है, इसका कोई स्पष्ट जवाब अनिल शुक्ला नहीं बताते लेकिन स्थानीय लोग मान रहे हैं कि यह सीमा विवाद के चलते ही हुआ है क्योंकि इस तनाव के बढ़ने से पहले अस्थि विसर्जन के लिए स्थानीय लोगों को कालापानी जाने की अनुमति दी जा रही थी।
वैसे सीमांत क्षेत्रों में बसे गांव के लोगों को अपने-अपने गांव जाने की अनुमति अब भी मिल रही है और नई बनी सड़क इन लोगों के लिए बड़ी राहत लेकर आई है। तिब्बत सीमा के पास बसे इस क्षेत्र के आखिरी गांव कुटी के रहने वाले अर्जुन सिंह बताते हैं, ‘साल 2000 तक हमें अपने गांव पहुंचने के लिए 80 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था। फिर मांग्ती तक सड़क पहुंची तो यह दूरी कुछ कम हुई लेकिन तब भी 60 किलोमीटर से ज्यादा की दूरी थी। ये पहली बार है कि हम गांव तक गाड़ी से जा सकते हैं।’
पिथौरागढ़ जिले के इस क्षेत्र में तीन घाटियां हैं - व्यास घाटी, दारमा घाटी और चौदास घाटी। इन तीन घाटियों में बसे दर्जनों गांव इस नई बनी सड़क से सीधा लाभान्वित हुए हैं। लेकिन इस सड़क के उद्घाटन के बाद भारत-नेपाल संबंधों में जो तनाव आए हैं, उसका सीधा प्रभाव भी इसी क्षेत्र के लोगों पर पड़ता है।
इस क्षेत्र में भारत और नेपाल की सिर्फ भौगोलिक सीमाएं ही करीब नहीं आती बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषायी एकता भी गहराती जाती है। यहां का सामाजिक ताना-बाना नेपाल के साथ इस खूबसूरती से गूंथा हुआ है कि अंतरराष्ट्रीय सीमाएं सिर्फ राजनीतिक नक्शों पर बनी औपचारिकताएं भर ही रह जाती हैं। कहा ही जाता है कि यहां लोगों का नेपाल के साथ ‘रोटी और बेटी का रिश्ता’ है। स्थानीय लोगों का नदी के दूसरी छोर पर बसे नेपाल में शादियां करना आम बात है।
जौलजीबी में ही हमारी मुलाकात हरीश गिरी से होती है। वे कहते हैं, ‘मेरी पत्नी मूल रूप से नेपाल की ही रहने वाली हैं। हमारे कई रिश्तेदार उस पार रहते हैं। लेकिन जब से लॉकडाउन हुआ है हमारा उस तरफ जाना या उधर से किसी का इधर आना पूरी तरह से बंद है, कोई संपर्क नहीं है। हम यहां से 70 किलोमीटर दूर पिथौरागढ़ जा सकते हैं लेकिन आधा किलोमीटर दूर नेपाल नहीं जा सकते क्योंकि दोनों देश एक-दूसरे के लोगों आने-जाने नहीं दे रहे।’
इस क्षेत्र में जौलजीबी से कालापानी तक दोनों देशों की सीमाएं काली नदी के बहाव की विपरीत दिशा में समानांतर चलती हैं। इस नदी पर कई जगह पैदल पुल बनाए गए हैं जिनसे स्थानीय लोग आसानी से एक-दूसरे के देश में आते-जाते हैं। ये आवागमन हमेशा से इतना सहज रहा है कि नेपाल से कई छात्र तो हर दिन ट्यूशन पढ़ने इस तरफ आते हैं और शाम को लौट जाते हैं।
जब हम अपनी गाड़ी का रेडियो ऑटो-ट्यून करते हैं तो रेडियो पर नेपाली चैनल बजने लगता है। धारचूला के आस-पास नेपाली रेडियो स्टेशन खासे लोकप्रिय हैं, नेपाली संगीत जमकर सुना जाता है और यहां की बोली भाषा से लेकर परंपराएं तक सभी नेपाल से बेहद मिलती-जुलती हैं।
सांस्कृतिक समानता से इतर यहां मूलभूत जरूरतों के लिए भी लोग एक-दूसरे के देश पर निर्भर हैं। नेपाल के तमाम गांवों के लोग राशन इस तरफ से ले जाते हैं तो भारत के कई गांव फोन नेटवर्क नेपाल का इस्तेमाल करते हैं। बल्कि सिर्फ गांव के लोग ही नहीं, भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों के जवान भी नेपाल के सिम कॉर्ड ही इस्तेमाल करते हैं क्योंकि तवाघाट से ऊपर के इलाकों में कोई भारतीय मोबाइल नेटवर्क नहीं है जबकि नेपाली नेटवर्क अच्छे से काम करता है।
सिमखोला गांव के रहने वाले कवींद्र कहते हैं, ‘कोरोना के चलते भारत-नेपाल को जोड़ने वाले सभी पुल बंद किए गए हैं। लेकिन अब इनका पूरी तरह बंद रहना सिर्फ कोरोना के कारण नहीं बल्कि दोनों देशों के बीच आए तनाव के कारण है। ये तनाव अगर बढ़ता है तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान इस इलाके के लोगों को ही होगा। इस घाटी में नेपाल की तरफ पड़ने वाले गांव तो सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे क्योंकि उनका तो राशन तक यहां से जाता है।’
इन दिनों भारत-नेपाल सीमा के इस हिस्से में भारतीय फौज की गतिविधियां भी कुछ तेज हुई हैं और नई बनी सड़क पर भी लगातार काम चल रहा है। दूसरी तरफ नेपाल में भी बॉर्डर के पास हलचल तेज हुई है।
स्थानीय लोग बताते हैं कि यह पोस्ट करीब एक हफ्ते पहले बनाई गई और इसके लिए कुछ लोगों को हेलिकॉप्टर से नदी किनारे उतारा गया था। इसे हालिया सीमा विवाद से न जोड़ते हुए ये लोग बताते हैं कि यह पोस्ट इसलिए बनी है क्योंकि नेपाल यहां एक पैदल रास्ता बना रहा है। माल्पा में सड़क निर्माण का काम कर रहे एक स्थानीय व्यक्ति कहते हैं, ‘ये पोस्ट जल्द ही हट भी जाएगी क्योंकि हम लोग इधर सड़क बनाने के लिए लगातार ब्लास्ट कर रहे हैं। जब आगे ब्लास्ट होंगे तो वह पोस्ट सुरक्षित नहीं रहेगी। इसलिए उन्हें वह हटानी ही होगी।’
लिपुलेख तक बनी नई सड़क अभी कच्ची है और सिर्फ बड़ी एसयूवी या फोर-बाई-फोर गाड़ियां ही इस पर चल सकती हैं। जगह-जगह भूस्खलन के कारण भी यह सड़क आए दिन ब्लॉक हो रही है। लेकिन इसे तुरंत ही खोल भी दिया जाता है और बीआरओ इस सड़क को बेहतर बनाने के लिए लगातार काम कर रहा है।
नाबी गांव के रहने वाले रवि कहते हैं, ‘जब ये सड़क बन रही थी तो कई जगह मशीने पहुंचाना इतना मुश्किल था कि ये मशीनें नेपाल की सीमा से होकर आगे पहुंचाई गई। तब नेपाल ने कोई आपत्ति नहीं जताई कि सड़क क्यों बन रही है। अब हमने टीवी में सुना कि भारत-नेपाल के बीच तनाव बढ़ रहा है। यहां तो कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ। कहने को ये बॉर्डर है पर कभी महसूस ही नहीं हुआ। उस पार हमारे घर जैसे संबंध हैं। ये देशों के बीच तनाव टीवी तक ही रहे, यहां बॉर्डर तक न पहुंचे।’
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